दूसरों के कंधो पे टिके हुए लोग
अपनी परछाईं से छुपे हुए लोग
समझते है ख़ुद को मसीहा
ये कौड़ी कौड़ी में बिके हुए लोग
अपनी सच्चाई से डरे हुए लोग
ढहती दीवार पर खड़े हुए लोग
रौंद देते है नीचे सपने कई
अपनी ऊँचाई से भरे हुए लोग
कीड़ों की तरह छितराए हुए लोग
सत्ता के घमंड में इठलाए हुए लोग
अपनी अपंगता से मजबूर
दूसरों पर चिपकाए हुए लोग
भूल जाते है हर शय को एक मात होती है
हर चिंगारी एक दिन राख होती है
उपरवाले की दुआ में ना सही
मजलूम की आह में आवाज़ होती है
अपनी बर्बादी के मंज़र ख़ुद तराशते है
ये अंधे बहरों से नज़र आने वाले लोग