सरकारी संस्थाओ के पास इतनी सुविधाएँ है, इतनी प्रतिभा है फिर भी उनकी बद हाली देख कर दुःख होता है। रसायन शाला के नाम पर चन्द कमरे, उन्मे बैठे २-३ डॉक्टर, ३-५ उदासीन नर्स, १ दवा बाँटने वाला और १ चपरासी। दूसरी ओर बीघों फैली ज़मीन शहर के सबसे बढ़िया हिस्से में, जालीदार गोखड़े, सदियों पुराने बरगद के पेड़ जिन्होंने शायद इतिहास बदलते देखा होगा आज समय के परिवर्तन की कहानी कहते है। कुछ जर्जर पंखे, बूढ़ी अलमारियाँ और अघनिकले दरवाज़े, लोहे की जंग लगी कुर्सियाँ, पुराने फटेहाल दस्तावेज़ और उनपे जमी मनो धूल मानो सब चीख़ चीख़ कर समय के गतिशील होने का अहसास करा रहे हो। धन्वन्तरि ने जब सभ्यता को आयुर्वेद की देन दी तो शायद ही कभी सोचा होगा की ये दिन भी इस कला को देखना पड़ेगा।
एक सत्य जो आज भी क़ायम है वो ये की जिस अपनेपन से मरीज़ को देखा जाता है उसकी आधी बीमारी ऐसे ही ठीक हो जाती हैं। इस चिकित्सा पध्यति से व्यवसायिकता अभी भी कोसो दूर है। अंग्रेज़ी दवाओं की अपेक्षा आयुर्वेद बीमारी की जड़ पकड़ता है। आयुर्वेद का सार भारतीय रसोई में ही छुपा है ओर इसके कोई दुष्प्रभाव भी नहीं है। बीमारी के साथ साथ शरीर के विकारों को दूर कर एक स्वस्थ जीवन का मूल संदेश देता है आयुर्वेद।
इसके प्रति लोगों की बढ़ती जागरूकता ख़ुशी का विषय है। हर सवाल का जवाब पश्चिम से आए ये ज़रूरी नहीं। हमारी अपनी सभ्यता में इतने जवाब है की आवश्यकता है विश्वास की। हमें अपनी सोच बदलनी होगी, अपना नज़रिया बदलना होगा। वहाँ डॉक्टर के साथ interns को देख बहुत गर्व हुआ की ये बच्चें इस कला को मानते है लेकिन चिंता का विषय ये है कि क्या मरीज़ भविष्य में इन डॉक्टर को, इनकी पध्यति को मानेंगे?
आइये सोच बदले देश बदले।।