आज ऑफ़िस से जल्दी निकल गयी। बाज़ार में थोड़ा काम था। कपड़े ख़रीदने थे, फिर गैस स्टोव काफ़ी पुराना हो गया, बोर हो गयी हूँ सोचा नया ले लूँ। एक दो महीने कुछ शॉपिंग ना करो तो ज़िंदगी नीरस सी लगने लगती है।
बड़े शहरो की ज़िंदगी भी क्या ज़िंदगी है, पूरा दिन दौड़ों भागों फिर भी ऐसा लगता है की तनख़्वाह कम ही है। पैसे ना जाने कहा चले जाते है। इस महीने बाहर जाने के टिकट कराने है, कार का इन्शुरन्स करना है, अगले महीने एलआईसी की किश्त भरनी है। बाप रे, कितने ख़र्चे है। सोचती हूँ वापिस उदयपुर शिफ़्ट हो जाऊँ, सैलरी कम मिलेगी पर कम से कम कुछ तो सेविंग होगी। अम्मा कहती थी उतने पैर फैलाओ जितनी चादर हो यहाँ तो मुझे लगता है कि साल दर साल चादर सिकुड़ती जा रही है।
अभी कल ही दिवाली पार्टी देने में इतना लम्बा चौड़ा ख़र्चा हो गया, कटौती करो भी तो कहा।
पूरे महीने का हिसाब किताब लगातीं हुई मैं गाड़ी दौड़ा रही थी की अचानक बत्ती लाल दिखी और मैंने गाड़ी का ब्रेक लगाया। चौराहे पर छोटे छोटे बच्चें फ़ूल बेच रहे थे। कपड़े मैले कुचैले फटेहाल, नंगे पैर, बाल गंदे, चेहरे ऐसे जैसे बरसो से धोए नहीं हो। कुछ सोच कर मैंने एक को बुलाया और उससे सारे फ़ूल ले लिए। 20 रुपए ज़्यादा दिए और कहा जाओ ऐश करो। दरअसल बत्ती हरी होने वाली थी और छुट्टे की झिकझिक मुझे करनी नहीं थी। गाड़ी आगे बढ़ाते बढ़ाते मैंने उसका चेहरा देखा। 1000 वॉट् की स्माइल थी जो महीने की हर 1 तारीख़ को तनख़्वाह आने पर भी अब नहीं आती। वो ज़ोर से चिल्लाया, अपने दोस्तों को आवाज़ दी और कहा चलो चिप्स खिलाता हूँ।सारे बेतहाशा उसकी तरफ़ भागने लगे। मुझे इतने दिन में पहली बार लगा की दिवाली है।
अम्मा सच कहती थी इतना मत उड़ो की सपने बोझ लगने लगे।