Wednesday, June 3, 2015

100 ग्राम उम्मीद

 

तलाश और  बस और  गहरी तलाश।  यही तो करती रहती थी उसकी आँखें, हर वक़्त उस एक शख्स की तलाश जो उसके साथ उसके कदम बाँट सके, उसकी उम्मीदे नाप सके ओर उसके ख्वाब जी सके। 

इतनी भी उमर नही हुई थी  उसकी जितनी लोगो ने बातें  बना डाली थी. दोस्तो से ले कर अजनबियों तक हर कोई उसे यही समझाता था की अब उसे शादी कर लेनी चाहिए|  वो अक्सर हंस कर टाल देती कि  लड़का ला दो कर लूँगी।  लोग कहते थे की उसे अपनी उम्मीदे कम करनी होगी, कही ना कही तो कॉंप्रमाइज़ करना पड़ेगा।  आख़िर शादी का मतलब ही यही है ओर सब करते है. उसे हमेशा से ये सोच नागवार थी, बस बात ही यही थी की उसे कोई अपेक्षा ही तो नही थी।  उसे सिर्फ़ एक सुलझा हुआ इंसान चाहिए था जो उसकी भागती ज़िंदगी मे थोड़ा ठहराव ला सके,  पर शायद ये क़ौम धरती से रुखसत हो चुकी थी. जहा देखती पैसा, दिखावा, ढोंग भरा होता. विचारो की गहराई ओर ज़िंदगी की समझ 21वी सदी के लिए थी ही नही.

कमी थी भी तो क्या उसे. माता पिता की इकलौती संतान थी।  मल्टिनॅशनल कंपनी मे ऊँचे पद पर कार्यरत थी।  ज़रूरत से ज़्यादा कमाती थी और अपने साथ साथ अपने माँ बाप के शौक भी पूरे करती थी।  पर उसके माँ बाप को भी दुनिया की तरह एक ही चिंता खाए जाती थी।  कई बार वो समझ नही पाती थी की ये चिंता ज़्यादा है या बोझ कम करने की कोशिश। 
 
एक दिन वो यूही दफ़्तर मे कही उलझी थी की चपरासी ने आकर बताया की एक नामी बॅंक के वाइस प्रेसीडेंट उसे मिलने आए है।  यूं भी बिज़नेस टाई अप के चक्कर मे बॅंक से अधिकारियो का आना जाना लगा रहता था।  वो गयी, उन्हे नमस्कार किया ओर बैठ गयी उनकी बात सुनने के लिए।  बातो बातो मे बात निकली ओर बिज़नेस से निकल कर व्यक्तिगत जीवन पर मूड गयी। काफ़ी सुलझा हुआ व्यक्तित्व था उनका।  लिखने पड़ने का शौक फरमाते थे, दीं दुनिया से जुड़ी खबरो मे विशेष रूचि रखते थे और धरम देश के बंधनो की खुल कर आलोचना करते थे। समाज और समाज से जुड़े ढकोसलो को वे सिरे से खारिज कर जाते।  दुनियादारी पर उन दोनो के विचार काफ़ी मिलते जुलते थे। काफ़ी दिलचस्पिया पैदा हो गयी दोनो के बीच ओर कहाँ वक़्त निकल गया पता ही नही चला। इसी बीच उसने जाना की वो शहर मे नये आए है और  रहने के लिए मकान ढूँढ रहे है जिसमे उन्हे बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। कारण पूछने पर उन्होने बताया की इस शहर मे अविवाहित लोगो को कोई किराया देना पसंद नही करता।  ना जाने क्यूँ उनकी इस परेशानी से उसे एक अजीब सा सुकून मिला. काफ़ी देर तक गुपशुप चलती रही, आख़िर उन्होंने  उससे विदा ली ओर निकल गये। घर आकर वो बहुत देर तक उनके बारे मे सोचती रही। 
उसकी उम्र तक आते आते प्यार की जगह तजुर्बे ओर समझ ने ले ली थी। वो जानती थी की ज़िंदगी जीने के लिए जज़्बात मिलना ज़रूरी है, प्यार तो फिर हुमराह होने पर हो ही जाता है।  उन जनाब की बातो ने काफ़ी रात तक उसे जगाए रखा। इन्ही बातो मे खोई हुई वो कब नींद के आगोश मे चली गयी उसे पता ही नही चला। 

दूसरे दिन दफ़्तर मे जाकर वो काम मे ऐसी मशगूल हुई की इस मुलाकात के बारे मे भूल गयी।  शाम को उसके मोबाइल पर मेसेज आया जिसमे उसे बिज़नेस प्रपोज़ल के बारे मे पूछा था।  वो समझ गयी की ये उन्ही का मेसेज होगा।  और फिर मेसेजस का दौर शुरू हुआ।  दोनो ने एक कप कॉफी पर इस प्रपोज़ल को आगे बढ़ाने की ठानी।  कॉफी शॉप मे एक दूसरे को देखते ही दोनो के चेहरे पर गहरी मुस्कान आ गयी।  एक दूसरे मे उनकी ये विशेष रूचि अब उन दोनो पर भी ज़ाहिर हो चुकी थी सो खुल कर बातें बह निकली।  बिज़नेस प्रपोजल ने एक दूसरा ही मोड़ पकड़ लिया था।  कॉफी से कब डिनर तक पहुचे, ये तंद्रा वेटर ने भंग की ये कह कर की होटेल बंद होने का समय हो गया है।  बिल दे कर बाहर निकले ओर काफ़ी दूर तक चलते रहे।  फिर उसी ने पहेल करी ये कह के की वो उसे अपना बिज़नेस कार्ड देना तो भूल ही गया।  उसने जेब से कार्ड निकाला ओर उसकी ओर बड़ाया।  कार्ड देखते ही उसका हाथ वही थम गया - फारूक  कुरैशी!!

धर्म से उसे इतनी नफ़रत क्यूँ थी ये वजह शायद आज पहली बार इतनी जातिय तौर पर उसे समझ आई थी।  उसके थमे हुए हाथ और उसकी ठहरी हुई नज़र से फ़ारूक़ को भी ये अंदाज़ा हो गया था।  उसने दो घड़ी रुक कर उसकी आँखों को टटोला।  उम्मीद का वज़न बड़ी तेज़ी से गिरता देख उसने अपना कार्ड वापिस जेब मे रखा ओर एक आख़िरी बार उससे नज़रे मिला कर अपने कदम उल्टी दिशा मे बड़ा दिए। 

बचपन में सुना एक गाना उसे याद आ गया था … 

“तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा”

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